पिंड दान पूजा
हिंदू समाज में किसी मृत व्यक्ति के निमित्त किये जाने वाले और्ध्वदेहिक कृत्यों में “पिण्डदान’ का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। “पिण्ड’ शब्द का अभिधेयार्थ होता है “किसी वस्तु का संघातित या गोलाकृतिक रुप’, किंतु प्रतीकात्मक रुप में शरीर को भी पिण्ड कहा जाने के कारण इसका लक्ष्यार्थ होता है “मानवशरीर’।
मृतक कर्म के संदर्भ में इसके ये दोनों ही अर्थ संगत होते हैं, अर्थात् इसमें मृतक के निमित्त अर्पित किये जाने वाले पदार्थ अर्थात् जौ या चावल के आटे को गूँथ कर अथवा पके हुए चावलों ( भात ) को मसल कर तैयार किया गया गोलाकृतिक “पिण्ड’ तथा “दान’ का अर्थ है मृतक के पाथेयार्थ एवं लोकांतर में मृतक के भस्मीभूत शरीरांगों का पुनर्निमाण।
मृतक संस्कारों से सम्बन्ध पद्धतियों में कहा गया है कि मृतात्मा के परलोक गमन के पाथेय के लिए शवयात्रा के प्रारम्भ से लेकर उसके चिताधिरोहण तक पाँच पिण्डदान किये जाने चाहिए। तदनुसार शवयात्रा की तैयारी कर लिए जाने पर प्रमुख संस्कारकर्ता अपनी मध्यमा अंगुली में कुशा की “पवित्री’ धारण कर यव, जल, पुष्प आदि के साथ संकल्पपूर्वक जौ / चावल के आटे के पाँच पिण्ड तैयार करता है, जिन्हें उनके पृथक्- पृथक् नामों से निम्नलिखित रुपों में मृतक को अर्पित किया जाता है।
इन में से प्रथम पिण्ड को, जिसे “भृतिस्थान’ पिण्ड कहा जाता है, शव की अर्थी पर रखने से पूर्व उसकी मृत्यु के स्थान पर उसके पेड़ू ( कटि प्रदेश ) में रखा जाता है। द्वितीय पिण्ड, जिसे “पाथनिमित्तक’ कहा जाता है, शव की अर्थी पर रखने के उपरांत उसके उदरस्थल पर रखा जाता है। तृतीय पिण्ड, जिसे “खेचर निमित्तक’ कहा जाता है।
इसी प्रकार “भूत निमित्तक’ अथवा विश्रान्ति निमित्तक पिण्ड को श्मशान भूमि में शव में शव को भूमिस्थ करने के उपरांत उसके वक्षस्थल पर रखा जाता है और पाँचवें ( अंतिम ) “वायुनिमित्तक’ नामक पिण्ड को शव के चितारोहण के उपरांत उसके सिर के नीचे रखा जाता है। किन्ही पद्धतियों में इनके अतिरिक्त अस्थिसंचयन के समय छठे पिण्डदान का भी विधान पाया जाता है। वाराणसी संप्रदाय के अनुसार शवदाह के समय 4.5 अथवा 6 पिंडों का तथा मिथिला संप्रदाय के अनुसार केवल एक पिण्ड दिये जाने का भी विधान पाया जाता है।
अंत्येष्टिपरक और्ध्वदेहिक कृत्यों से संबद्ध पद्धतियों में प्रथम दिन से लेकर बारहवें दिन तक पिण्डदान का विधान करते हुए कहा गया है कि विभिन्न दिनों में प्रदत्त इन पिण्डों से प्रेतात्मा की भूख- प्यास की तृप्ति के अतिरिक्त उसके शरीर के विभिन्न अंगों का पुननिर्माण होता है। यथा प्रथम दिन के पिण्ड से रक्तनलिकाओं का, द्वितीय दिन के पिण्ड से उसके श्रवण, नेत्र और प्राण का, तृतीय दिन के पिण्ड से ग्रीवा, कण्ठ, कंधे, बाहु और वक्षस्थल का, निर्माण होता है। इसी प्रकार नौ दिनों तक दिये गये पिण्डों से उसके शरीर के संपूर्ण अवयवों का निर्माण पूरा हो जाता है।
इसके बाद दसवें दिन दिए जाने वाले पिण्ड से प्रेतात्मा की प्रेत दशा से मुक्ति हो जाती है। इस दिन मृतक के अतिरिक्त यम के लिए भी पिण्ड दिया जाता है। ग्यारहवें दिन पिण्डदान के अतिरिक्त उसके निर्मित्त “वृषोत्सर्ग’ भी किया जाता है।